एक शेर:-
मै आफताब हूँ ,मुझे बुझाने का खौफ न दिखा !
जमाने मे जीना सीख लिया है मैने,मुझे इसके वसूल न सिखा !
कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
कवि एवं लेखक
mob-7398328084
All Rights Reserved@kavishivallahabadi
ब्लाग-www.kavishivallahabadi@blogspot.com
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एक शेर:-
मै आफताब हूँ ,मुझे बुझाने का खौफ न दिखा !
जमाने मे जीना सीख लिया है मैने,मुझे इसके वसूल न सिखा !
कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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एक शेर :-
मै वो नही हूँ जो आपने बताया है !
बस यही दर्द आज दिल मे उभर आया है !
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मेरी एक नवीन रचना से कुछ पंक्तियाँ:-
मेरा दर्द फसाना बनकर,
प्रेम कहानी लिख देगा!
लिखा न होगा अब तक जो भी,
ऐसी वाणी लिख देगा !
भटक रहे थे दर-2 कल जो,
आज बने हैं वो राजे !
लेकिन मै हूँ अब भी राही,
राह निशानी लिख देगा !
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आपको समर्पित मेरी ये पंक्तियाँ :-
उसके चेहरे पर रौब दिखाई देता है !
वो दुश्मन को खुद खौफ दिखाई देता है !
न समता उसकी कभी किसी से हो सकती !
वो सागर है खुद मौज दिखाई देता है !
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एक शेर:-
कभी न हारता मै गर वो अपने छोड़ न जाते।
कि उनकी बेरुखी ने मुझको यूँ बर्बाद कर डाला ।।
कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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सत्ता की अनावश्यक हिटलरशाही और तथाकथित कलमकारों की चुप्पी पर व्यंग करती मेरी ये रचना :-
कलम सुहागन बनी हुई है ,
सत्ता के गलियारों की !
चाँदी ही चाँदी दिखती है ,
नेताओं के यारों की !
एक तरफ सैनिक बेचारे,
मारे जाते सीमा पर !
सन्सद बस्ती बनी हुई है ,
कुर्सी के बीमारों की !
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प्रेम पर लिखा मेरा ये नवीन मुक्तक:
तुम्हारी नींद से बोझिल,
इन्ही आंखो मे आऊँगा !
जगाकर रात भर तुमको,
तेरे सपने सजाऊँगा !
जमाना छीन न ले फिर कहीं,
मुझसे तेरी खुशबू !
सभी से मै चुराकर तुझको,
पलको मे छुपाउँगा !
कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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मेरी एक नवीन रचना से कुछ पंक्तियाँ:-
मुझे अपना बनाने की ,
कसम खा के तो देखा कर !
कि जब भी हो अकेला तू ,
जरा मुसका के देखा कर !
जमाने की सभी उलझन,
तू यूँ ही भूल जायेगा !
जो दुनिया रूठ जाये तो ,
मुझे अपना के देखा कर !
कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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अपने भांजे के इस अल्हड़ अन्दाज को देखकर अनायास ही ये पंक्तियाँ दिमाग में आ गयी :-
मासूमी अन्दाज बताता,
बचपन एक कहानी लिख दूँ !
खेल,खिलौने,बात में झगडे,
मैं आंखो का पानी लिख दूँ !
खुशियों का संसार समेटे,
चिंतारहित निशानी लिख दूँ !
न कोई झूठ ,न ही कोई ईर्ष्या ,
इसे ईश्वर की वाणी लिख दूँ !
कवि शिव इलाहाबादी 'यश '
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वर्तमान सरकार को अपनी पुरानी कही हुई बातों को याद दिलाती मेरी ये नवीन रचना :-
कहाँ है आज वो ललकार
जो कल तक थी जोरों से !
हैं दिखती चीख अब दबती हुई सी
आज शोरों से !
तुम्ही ने कल कहा था सर कलम
करने को दुश्मन के ,
तो फिर अब क्यों ठगे से हो खडे
चोरों छिछोरों से ?
कवि शिव इलाहाबादी 'यश '
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