शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

आखिर गरीबी जातिगत क्यो : आखिर ये दोहरे चरित्र की राजनीति कहाँ तक जायज है ?

गरीबी जाति बता कर नही आती ! फिर गरीबी का जातिगत आकलन कितना जायज है ! आपकी  राय अपेक्षित है :-

आतंकी का धर्म नही है
फिर गरीब की जाती(जाति) क्यो ?

इस दुनिया को नर्क बनाने
की दोहरी परिपाटी क्यों ?

कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
कवि एवं लेखक
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मंगलवार, 11 जुलाई 2017

वादे के टूट जाने से टूट रहे लोगों के लिये लिखी मेरी ये पंक्तियाँ

मत हो परेशाँ,गर वादा टूट गया :-
देखिये ये पंक्तियाँ:-

जो चीजे टूट जायें तो ,
करें उनका भरोशा क्या !

शमा बुझने लगे गर तो,
बहारें क्या, झरोखा क्या ?

रही एक बात वादे की,
तो उस पर क्या खफा होना?

जो जीवन ही नही अपना
तो दूजे का भरोशा क्या ?


कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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शनिवार, 8 जुलाई 2017

एक बेबाक और बिजली के समान शोहदों पर बरसने वाली महिला का समर्थन करती मेरी पंक्तियाँ :-

बहादुर और शोहदों पर बिजली की तरह बरसने वाली महिलाओं पर  कुछ पंक्तियाँ:-

तेरे साहस से शायद अब तक अंजान रहा होगा !
बाते है बेबाक तेरी वो न पहचान रहा होगा !

बोल गया वो सोच के अबला जो कुछ भी मन मे आया!
लेकिन आ टपकेगी ज्वाला ये न भान रहा होगा !

कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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गुरुवार, 6 जुलाई 2017

किसी के घूरने और प्यार मे अंतर कर पाने पर लिखी ये पंक्तियाँ-कवि शिव इलाहाबादी

किसी के घूरने और प्यार मे अंतर कर पाने पर लिखी ये पंक्तियाँ:-

भला हो नजरों का तेरी
जो झुककर सच बता पायी !

नही तुम यूँ किसी के घूरने को,
प्यार कह देती !

कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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सोमवार, 3 जुलाई 2017

सामाजिक दरिन्दो से खुद को बचाने की कोशिश करती लड़कियों को समर्पित :-

सामाजिक दरिन्दो से खुद को बचाने की कोशिश करती लड़कियों को समर्पित :-

बचाना ही नही काफी, उन्हे दुत्कारना होगा !
जो खूनी हैं दरिन्दे उनको भी अब मारना होगा !

नही आसान होगा अब महज लक्ष्मी बने रहना !
कि बनके लक्ष्मीबाई उनको यूँ धिक्कारना होगा !

कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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शनिवार, 1 जुलाई 2017

माँ की याद :कवि शिव इलाहाबादी

*** माँ की याद ***

अक्सर सिहर उठता है ये दिल,
जब याद आती है माँ की;
और उसके साथ बिताए हर लम्हे,
मेरी धडकनों मे धड़कने लगते हैं।

तो
छा जाती है जिंदगी मे एक अजीब सी खामोशी,
और ज़िंदगी लगने लगती है,
बिल्कुल नीरस और वीरान।

याद आता है वो समय
जब रात के घने अंधेरों में,
माँ का आँचल होता था,
सबसे महफूज जगह।
और बीमार होने पर माँ के पास बैठना,
लगता था सबसे सुखद और प्यारा।

मगर अफसोस!
कि अब हम नही कर पायेंगे,
उस सुखद क्षण का फिर कभी एहसास ।
क्योकि अब हम उसकी दुनिया का हिस्सा नही हैं।
वो छोडकर चली गयी है हमे,
इन वीरानियों में
अकेला तड़पने के लिए।
वो भी एक ऐसी जगह
जिसकी लोग बातें तो करते हैं,
पर उसे कभी किसी ने देखा नही।

कवि शिव इलाहाबादी 'यश'
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