चंद सिक्कों के लिए जो बेचते हैं आबरू,
है दुखद कि आज वो ही देश के उद्गार हैं !
कवि शिव इलाहाबादी
मोब.7398328084
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चंद सिक्कों के लिए जो बेचते हैं आबरू,
है दुखद कि आज वो ही देश के उद्गार हैं !
कवि शिव इलाहाबादी
मोब.7398328084
देवी तुल्य सभी नारियों को समर्पित मेरी रचना के कुछ अंश :
इस जीवन को वो ही परिपूर्ण बनाती है ,
हर सुख दुःख में सबका साथ निभाती है !
हम किसको उससे बेहतर कह दें हे राधे,
जो मुझको तेरा भी ज्ञान कराती है !
सच्चे अर्थो में वो ही देवी रूप भी है ,
इस दुनिया में जो नारी कहलाती है !
कवि शिव इलाहाबादी ’यश’
कवि एवं लेखक
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पुलिस भर्ती की जाति सीमा निर्धारण पर व्यंग
जिस पतवार ने पार लगाया उसको ही अब जला रहे हैं किसको लोकतंत्र कहते हैं , कैसा रिश्ता निभा रहे हैं ?
एक राष्ट्र की बातें करके जो कल तक थकते ही न थे ,
राष्ट्रवाद की दीवारों को जातिवाद से जला रहें हैं !
ब्राह्मण और दलित कानूनों का अवाम में झगड़ा क्यों है ?
कोई जाति का पिछड़ा क्यूँ है ,जातिवाद ये अगड़ा क्यूँ है ?
कुर्सी के चक्कर में अपने ही अपनों को सता रहे हैं !
राष्ट्रवाद की दीवारों को जातिवाद से जला रहें हैं !
मजहब जाति पंथ के झगडे नैतिकता पर भारी क्यों हैं ,
कुर्सी पर बैठे गुंडे बदमाशों के आभारी क्यों हैं ?
रावण की नीयत वाले अब राम का मुखड़ा दिखा रहे हैं !
राष्ट्रवाद की दीवारों को जातिवाद से जला रहें हैं !
कवि शिव इलाहाबादी
कवि एवं लेखक
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जातिगत आरक्षण जिस तरह से देश की एकता, अखण्डता और विकास में बाधक बनकर खतरा पैदा कर रहा है , उस स्थिति में ये पंक्तियाँ लिखना आवश्यक हो जाता है !
आरक्षण की बदली जब सूरज को खाने लगती है ,
गीदड़ की टोली शेरो को राह दिखने लगती है ,
तब भारत के सौरव अपना गौरव खोने लगते हैं !
सिंहो के वंशज भी गीदड़ जैसे रोने लगते हैं !
तब भारत की बीमारू तस्वीर दिखाई देती है !
मुझको देश की हालत ही गंभीर दिखाई देती है !
कोहरे से जब चमक धरा की फीकी पड़ने लगती है !
इंसानी जातें श्वानी जातों सी लड़ने लगती हैं !
तब शावक भी धावक बन कर नर्तन करने लगते है !
और हजारों चूहे खाकर बिल्ले भी हज करते हैं !
तब भारत की बिखरी सी तस्वीर दिखाई देती है ,
मुझको देश की हालत ही गंभीर दिखाई देती है !
जातिवाद शोषित किसान जब सहमा-2 दिखता है !
आरक्षित लोहा मँहगा और सोना सस्ता बिकता है !
तब उन्नत मस्तिष्क गलत राहों पर मुड़ने लगते हैं ,
पेट पालने के खातिर जंगों से जुड़ने लगते हैं !
ऐसे में उनके दिल में एक पीर दिखाई देती है ,
मुझको देश की हालत ही गंभीर दिखाई देती है !
लोकतंत्र का खुले आम जब खंडन होने लगता है ,
देशद्रोहियों ,जयचंदों का वंदन होने लगता है !
और भेड़िये नरमांसों का भक्षण करने लगते हैं !
सत्ता में बैठे खूनी का रक्षण करने लगते हैं !
तब सरल ह्रदय के अंतस में एक पीर दिखाई देती है !
मुझको देश की हालत ही गंभीर दिखाई देती है !
कवि शिव इलाहाबादी
कवि एवं लेखक
मोब.7398328084
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जब कुर्सी का नशा जनमानस की समस्याओ को भूलने का कारण बन जाये, गरीबों और किसानो की स्थिति जस की तस बनी रहने लगे, देश की होनहार युवा जनता बेरोजगारी का दंश झेल रही हो और पूरे देश में जातिवाद के नाम पर गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हों तो ये लिखना कलम की मजबूरी हो जाती है !
जिसको रक्षक समझ रहे थे ,वो ही तन पे आरी निकले !
शेर खाल में घूम रहे थे , गधे की हिस्सेदारी निकले !
बातें बहुत गरीबों की थी जिनके मुँह में वर्षों से ,
कुर्सी मिलते ही सब भूले , चोर चोर की यारी निकले !
सुलग रहा है देश ये सारा जातिवाद के झगड़ों में ,
कुछ है पोषक पिछड़ों के तो कुछ हैं शामिल अगड़ों में ,
देश की बातें करने वाले भावों के व्यापारी निकले ,
कुर्सी मिलते ही सब भूले , चोर-2 की यारी निकले !
कृषक के बच्चे तरस रहे हैं , सूखी रोटी खाने को ,
नेता जी को समय नहीं है उनका दर्द मिटाने को !
हर गरीब को काम मिलेगा , भाषण सब सरकारी निकले,
कुर्सी मिलते ही सब भूले , चोर-2 की यारी निकले !
कल तक बात गरीबों की जो करते थे चौराहों पर,
हाथ मिलाते, पैर दबाते मिलते थे जो राहों पर ,
बदल गए वो समय बदलते, लाइलाज बीमारी निकले,
कुर्सी मिलते ही सब भूले , चोर-2 की यारी निकले !
कवि शिव इलाहाबादी ’यश’
कवि एवं लेखक
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हड्डियां कमजोर सी दिखने लगी हैं !
एक व्यंग्य :-
चंद सिक्कों की जदों में बह गए वो सूरमा,
जो कभी इंसानियत की बात कर थकते न थे !
कवि शिव इलाहाबादी ’यश’
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तू मुझे रोज बहारों मे मिला करता था !
आसमानों के सितारों में मिला करता था !
जब से रूठा है तू मैं हो गया हूँ तनहा सा !
तू मुझे मौजे किनारों में मिला करता था !
कवि शिव इलाहाबादी
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आप सभी को समर्पित प्रेम पर चंद पंक्तियाँ :-
मैं बताता रहा तुम छुपाने लगी ,
इस तरह कुछ मोहब्बत निभाने लगी !
राधिका के समर्पण की तस्वीर बन ,
चैन की मेरी बंशी चुराने लगी !
कवि शिव इलाहाबादी ’यश’
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किसी चाँद से चेहरे को समर्पित :-
ऐ चाँद तेरा दीदार करूँ तो,
कैसे ये बतला मुझको !
हर सुबह इसी उम्मीद में हो,
कब शाम ढले और तू आये !
कवि शिव इलाहाबादी
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उत्तर प्रदेश में एक महिला के साथ हुई अमानवीय घटना और जनता के मूक दर्शन पर लिखी मेरी ये पंक्तियाँ :-
जब मानवता मूक बने, सज्जनता विष का वमन करे !
तब फिर कैसे कोई रावण सीता माँ को नमन करे!
वहशी के अपराध कृत्य जब मौन सम्बल पाते हों ,
तो फिर कैसे कोई अबला दुष्ट दुशासन दमन करे !
कवि शिव इलाहाबादी ’यश’
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वर्तमान समाजिक परिदृश्य पर मेरी रचना से कुछ पंक्तियाँ :-
गीत नहीं ,संगीत नहीं है ,भाई बहन में प्रीत नहीं है !
माँ की ममता छली जा रही ,सत्य की दिखती जीत नहीं है !
तड़प रही दिखती मानवता, दया धरम की रीत नहीं है !
कहने को तो लोग हजारों , पर सच्चा कोई मीत नहीं है !
कवि शिव इलाहाबादी
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तेरा रूप , तेरी शरारत,तेरी मुस्कान,
यही तो हैं मेरी संपदा !
फिर तेरे लबों की हंसी के बगैर
ये दुनिया खूबसूरत कैसे हो सकती थी !
एक शेर :-
मै उमीदों के शहर में अब भी हूँ ठहरा नहीं ,
आज भी तू ही मेरी मंजिल भी है और राह भी !
कवि शिव इलाहाबादी
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करवा चौथ पर विशेष : सभी पति और उनकी पत्नियों को समर्पित :-
दामिनी बनके दामन सजायेगी वो ,
चाँद पर भी बिजलियाँ गिराएगी वो !
तेरी लम्बी उमर की करेगी दुआ ,
सोचती तुझको चंदा बुलाएगी वो !
कवि शिव इलाहाबादी
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