सोमवार, 17 अप्रैल 2017

ब्राह्मण पर कविता :कवि शिव इलाहाबादी(poem on brahmin:kavi shiv allahabadi)


हे ब्राह्मण

हे ब्राह्मण ! तुम ठहरे क्यों हो?



हे ब्राह्मण ! तुम ठहरे क्यों हो?
सन्नाटा सा पसरे क्यों हो?
जीवन की जेठ दुपहरी सा तुम,
इतना बिखरे-बिखरे क्यों हो?

                                     तुममे तो साहस है अद्भुत
और अद्भुत तुममे ज्ञान है।
तू ही योद्धा परशुराम है,
तू ही चरक महान है।

कुछ भी नहीं है इस जग मे
जो तेरी पहुँच से दूर हो।
तुम ही जग के आर्यभट्ट हो,
तुम ही तुलसी सूर हो।

दिखला दे जो राह अंधेरों मे भी,
तुम वो दीप हो।
तुम हो मूंगा,तुम हो माड़िक,
तुम सागर के सीप हो।

तुममे शक्ति का पुंज है अद्भुत,
ये इतिहास बताता है।
तुमसे ज्ञानी,ज्ञान और
विज्ञान का अद्भुत नाता है।

हे शक्तिपुंज ब्राह्मण तुम अपनी,
                                   शक्ति भूलकर रुको नहीं।
तुम आरक्षण की बाधा देख के,
किसी के सम्मुख झुको नहीं ।

तुम हो महासागर जिसकी वो,
                             राह रोक न पाएगा।
                                    आरक्षण का किला भी तेरे
                                    सम्मुख टिक न पाएगा।

तुम फिर से शक्ति दिखलाओ,
ये करना बहुत जरूरी है।
ब्राह्मण का एकता मे रहना,
ये कलीयुग की मजबूरी है।

सोचो की तेरी शक्ति कहाँ है,
लुप्त हुई मायूसी मे।
अपनों की बेरुख बातों से ,
बदल गयी बेहोसी मे।

लेकिन रुकना नहीं है हमको,
अब ये सोच के ब्राह्मण जी।
ले तरकश तलवार खड़े हो,
छेड़ दो तुम फिर से रण जी।

अगर हुए तुम सक्रिय तो फिर,
कोई न टिकने पाएगा।
आरक्षण का किला भी
अपने आप ही ढहता जाएगा।

हम अबाध सागर हैं यश
जो रस्ता अपना खोजेंगे।
मिली अगर न राहें अपनी,
नये तरीके सोचेंगे।




शिव पाँडेय "यश"
कवि एवं लेखक
Mob-73983280
84








14 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं